जब एक कट्टर,लकीर का फकीर और एक किताब के आधार पर चलने वाला बेरोज़गार अभिनेता अपनी ज़िंदगी के सबसे बेहतरीन किरदार तक पहुंचता है और ये पाता है कि उसका आज तक का अर्जित किया हुआ अभिनय का ज्ञान सवालों के घेरे में है और उस दिए गए किरदार को जीवित करने के लिए उसका सारा किताबी ज्ञान विफल है, तब क्या होता है..?
- इस शॉर्ट फिल्म की स्टोरी लाइन बहुत दमदार है और यह एक छोटा सा रोल पाने के लिए मुंबई में बरसों से स्ट्रगल कर रहे कलाकार की पीड़ा को बहुत बखूबी प्रस्तुत करती है। संदीप आनंद एक्टिंग में तो जबरदस्त तरीके से छाए रहे हैं पर डायरेक्शन के मोर्चे पर थोड़े से कमजोर प्रतीत होते हैं।
- सीमित संसाधनों में जैसे यह फिल्म बना ली गई है वह काबिले तारीफ है। इसमें काम करने वाले सभी एक्टर्स बहुत मंजे हुए लगे।सब्जेक्ट इतना शानदार था तो इसे और बेहतरीन साउंड इफेक्ट और बैकग्राउंड ट्रैक के माध्यम से और प्रभावी बनाया जा सकता है। इसमें साउंड्स का बहुत बारीक और बुद्धिमानी से प्रयोग करके इससे औसत से ऊपर उठाकर एक परिपूर्ण फिल्म जैसा बनाया है।
- इंडोर सींस के लिए लाइटिंग का सामंजस्य थोड़ा कमजोर लेकिन सिनेमैटोग्राफी अच्छी थी और डीओपी की ऐसे सीन फिल्माने की अच्छी नॉलेज उसके कंपोजिशंस, फ्रेम आदि को देखकर महसूस हो रही है।
- यहां तक कि एक्टिंग क्लास के स्टूडेंट्स और साथी कलाकारों तक का चयन भी अच्छा था। वह अपने फेस एक्सप्रेशन से भी सीन में जान डाल पा रहे थे। एडिटिंग में और कसावट हो सकती थी तथा इतनी स्टोरी के लिए कम से कम आधा समय बचाया जा सकता था।
- निष्कर्ष: निश्चित इसे बनाने वाली टीम ने अपनी ओर से प्री-प्रोडक्शन और प्रोडक्शन का काम बहुत अच्छी तरह किया है। फिल्म बहुत इंट्रेस्टिंग है। वेरी एक्सपेरिमेंटल एंड इनोवेटिव। इसके पीछे एक बहुत संभावनाशील डायरेक्टर छुपा हुआ नजर आता है।
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