अमित कर्ण, मुंबई.1939 को जुल्फिकार अली शाह के रूप मेंजन्मे फिरोज खान की25 सितंबर को 80वीं बर्थ एनिवर्सरी है। इस मौके पर उनकी बेटी लैला खान ने अपने पापा की लाइफ से जुड़ी कुछ खास बातें साझा की हैं। विशेष तौर पर फिरोज को आने वाले गुस्से को लेकर भी। दैनिक भास्कर को दिए इंटरव्यू मेंलैला ने ये बातें भी बताईं।
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लैला कहती हैं-मैं उनकी पहली संतान रही हूं। मुझको लेकर वे बड़े प्रोटेक्टिव रहे। इतने कि मैं दसवीं क्लास के बाद पढ़ने अब्रॉड जाना चाहती थी, पर उन्होंने प्रोटेक्टिवनेस में मुझे नहीं जाने दिया था। इस फैक्ट के बावजूद कि मैं बड़ी इंडिपेंडेंट ख्यालों वाली थी। बाद में ग्रैजुएशन के बाद उन्होंने मेरे पैशन के चलते मुझे बाहर जाने दिया। मैंने पेंटिंग का कोर्स किया। उसी में कॅरियर बनाया। फिल्मों में न आने देने के पीछे भी उनकी मेरे प्रति प्रोटेक्टिव नजरिया था। हालांकि मेरा इंटरेस्ट भी फिल्मों से ज्यादा पेंटिंग्स में था। उनके बर्थडे पर उन्हें पेंटिंग्स गिफ्ट दिया करती थी। उन्हें उनमें से जो अच्छा लगता था, उसकी तारीफ करते थे, बुरी लगने पर मुंह पर ही कह देते थे।
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फिरोज खान के बारे में लैला ने बताया -उनकी ऊपरी तौर पर छवि नो नॉनसेंस पर्सन की थी। लोग उनकी शख्सियतसे भी उनका इतना लिहाज करते थे कि उनके सामने कम फटकते थे। असल जिंदगी में वे एक हद तक ऐसे थे। तभी बचपन में मुझ पर या फरदीन पर उन्हें हाथ उठाने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। उनकी एक सख्त नजर ही काफी होती थी हम बच्चों की शरारत पर लगाम लगाने की।
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लैला ने फिरोज की लाइफ वैल्यूज की बारे में बताया कि-उन्होंने हमें हमेशा पैसे और मिली जिंदगी की वैल्यू करना सिखाया। वे कहा करते थे कि पैसे तो आएंगे और जाएंगे, मगर वैल्यूज सदा साथ रहेंगे। लिहाजा बड़ों का आदर और छोटों को सदा प्यार देते रहना चाहिए। हमारे सामने भी उनके शुरूआती दिनों के किस्से मिसाल बनकर जहन में घूमते रहते थे। वह यह कि उन्होंने भी मुंबई में स्ट्रग्ल की लाइफ जी थी। उसके बावजूद उन्होंने अपना मुकाम बनाया। मुझे वह बहुत चाहते थे। मेकअप आर्टिस्ट घर का खाना लाते थे। पापा रोजाना उनके साथ खाना खाते थे। पापा में ऐसी बात थी कि वे राजा को रंकको कीतरह और रंक को राजा की तरह ट्रीट करते थे।
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हालांकि हमारे दादाजी की ख्वाहिश तो थी कि पापा बड़े होकर बैरिस्टर बनें। पर पापा पर बेंगलुरू में वेस्ट की फिल्मों का इतना असर था कि वे फिल्मों में ही आना चाहते थे। आगे चलकर उनकी फिल्मों में वह सब दिखता था। उनकी फिल्मों के हर आस्पेक्ट बड़े टाइम अहेड होते थे। गानों से लेकर हीरोइनों की डेपिक्शन तक।
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वे काम को बड़े जुनून से अंजाम देते थे। वो कहा भी करते थे कि जो भी करो, उसे पूरी शिद्दत और जुनूनी ढंग से करो। मुझे याद है कि जब धर्मात्मा को ए सर्टिफिकेट मिला था तो वे काफी अपसेट हुए थे। इतने कि उनके हाथों में कांच का ग्लास था। वह सामने कांच के दरवाजे पर पटका था। वह दरवाजा टूट गया था। बाद में उसका उन्हें अफसोस हुआ था। पर उन्होंने इतने जुनून के साथ फिल्म बनाई थी कि सेंसर के रवैये पर उन्हें बड़ा गुस्सा आया था। उनकी फिल्मों के गाने आज भी खासे पसंद किए जाते हैं, क्योंकि उनकी धुनों से लेकर कोरियोग्राफी वगैरह सब आज की तारीख तक रेलेवेंट हैं।
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उनका अपना अंदाज रहा। उन पर मैं अगर ऑटोबायोग्राफी लिखूं तो उसका टाइटल होगा 'आई डिड इट माय वे’ यानी 'काम जिसे मैंने अपने तरीके से किया'।
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